मनुस्मृति में-आफर में फूके जाते धातुओं के मल जैसे दग्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष दग्ध होता है।1। उच्चावच (छोटे-बड़े) जीवों में अयोगी लोगों के लिये दुर्ज्ञेय इस अन्तरात्मा की गति को योगी ध्यानयोग से देखता है!।2। इत्यादि बहुत है।
याज्ञवल्क्यस्मृति में-यज्ञ आचार दम अहिंसा दान स्वाध्याय आदि कर्मों में यह तो परम धर्म है, जो योग से आत्मदर्शन करता है।1। हजारों जातियों में जन्म, प्रिय, अप्रिय आदि द्वन्दों का विपर्याप्त होता। किन्तु ध्यानयोग से सम्यक् योगी सूक्ष्म आत्मा को आत्मा में स्थित देखता है। 2। योगी याज्ञवल्क्य महर्षि कहते हैं-मेरा बनाया हुआ योगशास्त्र योग की अभिलाषा रखने वाले को जानना चाहिये। देही निज देह में सर्वाश्रया वेदना को जानता है। (आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्) । 3। किन्तु योगी विदेह-मुक्त होना है, जो सर्व वेदनाओं से रहित हो जाता । तत्वस्मृति उपस्थित हो जाती है। सत्वयोग से सर्व दोषों का परिक्षय हो जाता है! । 4 । कर्मों के सन्निधान से (जन्म जन्मान्तर के पुण्य पुन्ज के निकट आने से) सन्तों का योग होता है। योग सिद्ध हो जाने पर स्वेच्छा से योगी देह त्याग भी कर देवे तो अतृतत्व (कैवल्यमुक्ति पद) के लिये कल्प (शक्त=समर्थ) होता है। इत्यादि बहुत स्मृतियों में बहुधा योग की महिमा है
इत्यं श्रुति – स्मृति-पुराण-मुखाऽऽगमेषु,
योगोऽस्ति योगिमहिमास्ति विदन्ति सन्तः ।
दिग्दर्शनं त्विदमनूदितवान् नृसिंहः,
शाके नवाष्टचसुभूयुजि नागपुर्याम् । 1 ।