निर्गुण लीला

सतनमो आदेश! गुरु जी को आदेश! ॐ गुरु जी! 

निर्गुण दाता हरता करता, सब जग विनशे आप न मरता। 

सदा सर्वदा अविचल होय-लेना इक न देना दोय-ऐसा मता सन्त का होय ॥ 1 ॥ 

निर्गुण सागर अपरम्पार, जाके तरंग बसे सकल संसार । 

उत्पत्ति प्रलय वाही में होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥12 ॥ 

निर्गुण ब्रह्म लिखने सो न्यारा, पोथी पुस्तक भये अपारा 

कोरे कागज लिख पढ़ जोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥3 ॥ 

घट-घट मांही नित्य निवास, कली-कली कीजे फुलवास । 

ऐ मन भोरा कर कर जोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ।। 4 ।। 

कहां बताऊं रुप निशानी-ज्यों दर्पण में चमके पानी । 

निश्चल ब्रह्मा अश्चल होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥15 ॥ 

निर्गुण ब्रह्म अविचल देखा शाखा पत्र रूप न देखा । 

छोटा मोटा कभी न होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥16 ॥ 

अलख पुरुष में देख्या दृष्टि- जो करना हो बाहू की पुष्टि । 

है निश्चय कर जाने जोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ।। 7 ।। 

जग में होता रूप न रेखा, न होय तिरिया न होय पुरुषा । 

बाला बूढ़ा कभी न होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥8 ॥

ब्रह्म भवन में पुहकर भरिया-बिन पानी बिन सागर तरिया । 

सूरज कोटि उजियारा होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥ 9 ॥

बिन उस्ताद मिल्या ना कोय, मिल्या बिना न लेखा हो। 

लखते लखते हलका होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥ 10 ॥

जिस कारण मैं मुण्ड मुण्डाया-सो योगी मोहे कही न पाया। 

आगा पीछा बैठा खोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥ 11 ॥ 

सो योगी गुरु सहजे पाया, आगा पीछा सभी बताया। 

जब ही सो बैठे होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥ 12 ॥ 

पोथी पढ़-पढ़ भूले पण्डित, बहुत चला वहि वाद वितण्डित। 

पढ़ा घणा ते कुछ न होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥ 13 ॥ 

सात समुद्र स्याही करता, धरती कागज कर पर धरता । 

इक अक्षर का जाप न होय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ।। 14 ।। 

निर्गुण सागर भरयो हक्का, तरते तरते यह मन थक्का । 

तेरा पार न पाया कोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ।। 15 ।।

जिस अवधू का सकल पसारा, सो अवधू है सबसे न्यारा । 

उत्पत्ति प्रलय निशानी जोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ।। 16 ।।

कैसे जानूं काला धौला, सब घट मांही माणिक मौला । 

पांच रङ्ग से न्यारा सोय-लेना इक न देना दोय पूर्ववत्. ॥ 17 ॥