द्विजसेवितशाखस्य श्रुतिकल्पतरोः फलम् ॥
शमनं भवतापस्य योगं भजत सत्तमाः !
(विवेकमार्तण्डे, गोरक्षः)
योग-तत्वोपनिषद् में-ॐ योग तत्व का प्रवचन करेंगे-योगियों के हित की कामना से।
उस योग-तत्व को सुनकर और पढ़कर सब पापों से मुक्त होता है । 1 ।
विष्णु नामक महायोगी महामाया वाला महान् तपस्वी है,
तत्व (योग) मार्ग में पुरुषोत्तम दीपक जैसा दिखाई देता है। 2 ।
अ उ म् तीन अक्षरों के प्रान्त में जो आधा (म्) अक्षर का अध्ययन करता है,
उसने यह सब पा लिया और वह परम पद भी प्राप्त कर लिया |3 |
फूलों में जैसे गन्ध, दूध में जैसे घी, तिलों में जैसे तेल, पत्थर में जैसे सोना प्राप्त किया जाता है,
वैसे ही पिण्ड ब्रह्माण्ड में योग-युक्तात्मा योगीनाथ ब्रह्म को प्राप्त करता है।
निश्चित आत्मा सूक्ष्म योग सेवा से प्रत्यक्ष गोचर होता है इत्यादि आगे बहुत है।
योगशिखोपनिषद् में-सब ज्ञानों में उत्तम योग शिखा का प्रवचन करेंगे
साधक योगी जब मन्त्र ध्यान करता है तो गात्रकम्प नहीं होता । 1 ।
पद्मासन बाँधकर अथवा रुचि अनुसार 84 आसनों में से कोई भी आसन लगाकर, हाथ पाँव पद्म (कमल) के तुल्य कर संयम पूर्वक पौर्णिमा दृष्टि को नासाग्र में अटल कर, सब ओर से मन का प्रत्याहार कर योगी ॐकार की चिन्ता करे। ऋतम्भरा प्रज्ञावाला प्राज्ञ योगी परमेष्ठी (परमपदस्थ नाथ ब्रह्म) को हृदय में धारण कर सतत ध्यान करता है। 2-3
मेरुदण्ड का एक ही सम्मा है, जिसमें सत्य रजस्तमः तथावात पित्त कफ के 3 स्थूणा (सहायक खम्ये) हैं, जिसमें कान 2 आँख 2 नाक 2 मुख 1 पायु 1 उपस्थ 1 के नवद्वार है जिसमें प्राण अपान उदान समान व्यान 5 प्राण ही जिसमें देवता हैं, ऐसे शरीर रूपी मन्दिर में मतिमान योगी अलक्ष्य आत्मा को उपलक्षित करे।
वह आत्मा आदित्यमण्डलरूपेण विद्यमान है, दिव्य है, रश्मियों की ज्वालाओं से सम्यक् आकुल है, उसके मध्य में अग्नि प्रज्वलित दीपक की बत्ती के तुल्य
है।
दीपशिखा से जो मात्रा है, वह मात्रा परमेष्ठी (ब्रह्म) की है। पुनश्च योगी लोग योगाभ्यास से सूर्य का भी भेदन कर देते हैं।6। इत्यादि आगे बहुत है।
ध्यानबिन्दुपनिषद् में-यदि शैल समान पाप बहुत योजनों तक विस्तीर्ण हो तो भी ध्यान योग से उसका भेदन (नाश) किया जाता है, अन्य कोई उपाय कदाचित नहीं है।1।
बीजाक्षर से परे बिन्दू है, बिन्दू से परे नाद है, शब्द सहित अक्षर के क्षीण हो जाने पर निशब्द परम पद है। 2 ।
अनाहत जो शब्द (नाद) है, उस शब्द से भी जो परे है, जो योगी इसकी चिन्ता करे तो वह योगी छिन्नसंशय (संशय-रहित) हो जाता है। 3। इत्यादि आगे अधिक है।
अमृत बिन्दूपनिषद् में- ॐकार के रथ पर आरुढ़ होकर विष्णु को सारथि बनाकर ब्रह्मलोक के पद का अन्वेषण करता हुआ योगी रुद्र (शिव) की आराधना में तत्पर होता है। 11
जहां तक रथ का पन्थ है, वहां तक रथ से जाना चाहिये, आगे रथ को त्याग कर योगी जाता है। 2 ।
मात्रा लिंङ्गपद को त्याग कर शब्द व्यञ्जन से वर्जित स्वर रहित मकार द्वारा उस सूक्ष्म पद्म=पद (ब्रहारन्ध्रस्थ सहस्रदल कमलरूप गुरुनाथ ब्रहा का पद-स्थान) को प्राप्त करता है। 3 ।
योगी शब्द आदि विषय 5 अतिचञ्चल छठा मन, ये सब आत्मा के किरण है, ऐसा ध्यान कर अन्तर्मुख करे, वह प्रत्याहार है। 4 ।
प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान तर्क समाधि यह षडङ्गयोग कहा जाता है। 5 । यहाँ से आरम्भ कर- ।
इस विधि से सम्यक् नित्य योग का क्रमशः अभ्यास करते हुए योगी का आत्मज्ञान तीन मासों में स्वयं उत्पन्न होता है, इसमें संशय नहीं है। 6 । इत्यन्त
पर्यन्त बहुत है।
नादबिन्दु उपनिषद् में-एवं इस हंसयोग (हंसः सोऽहं ओहॐ क्रमेण शब्द ब्रह्म से परब्रह्म में लय करने वाला अजपा क्रमिक हठादि अननस्क पर्यन्त महाहसयोग) में आरूढ़ विचरण= विद्वान् योगी कर्म करता हुआ संसार में विचरण करे तो कर्म बन्धन में नहीं पड़ता और शतशः कोटिशः पाप ताप योगी को छू नहीं सकते।1
योगाचार (यौगिक चर्या) से सुस्थित, सब प्रकार के सङ्ग से वर्जित योगी अष्ट पाशों से मुक्त होकर विमल केवल प्रभु (समर्थ कर्तु, अकर्तु अन्यथा कर्तु शक्त ईश्वर) होता है। 2। उसी ब्रह्म भाव से परम आनन्द प्राप्त कर विदेह मुक्त हो जाता है। इत्यादि बहुत है।
शिखोपनिषद् में सब कुछ ॐकार के अन्तर्गत है, सर्व ज्ञान से सब योगध्यानां में शिव ही एक ध्येय हैं, शिवशङ्कर (कल्याणकारी) है, और सबका परित्याग करो। इत्यादि आगे बहुत है।
क्षुरिक्षोपनिषद् में-जैसे निर्वाण काल में (बुझते समय) तो दीपक तेल वाती सबको दग्ध कर लीन होता है, वैसे ही निर्वाण-काल में (नाथ ब्रह्म में लीन होते समय) योगी सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात कर लय (लय योग द्वारा ब्रह्म में लीन) को प्राप्त करता है। इस प्रकार अमनस्क महायोग से ब्रह्मलीन होते समय योगी सिद्ध विचारनाथ (महाराजाधिराज भर्तृहरि) के शब्दों में विनम्र प्रार्थना करता है-
मातर्देदिनि! तात! मारुत! सखे! तेजः! सुबन्धे! जल!
भ्रातव्यम! निबद्ध एष भवतामन्त्यः प्रणामाञ्जलिः! युष्मत्सङ्गवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्मल-
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परे ब्रह्मणि! बृहदारण्यक उपनिषद् में- योगी याज्ञवल्क्य कहते हैं-ब्रह्म के दो रूप हैं, मूर्त तथा अमूर्त। मर्त्य तथा अमृत, स्थिर तथा चर, सत् तथा त्यत् (वह) । 1 । वह यह मूर्त है जो वायु से भिन्न है अन्तरिक्ष से भिन्न है, यह मर्त्य है, यह स्थित है यह सत्य है। 2। उस इस मूर्त का, इस मर्त्य का, इस स्थित का, इस सत् का यह रस है जो यह तपता है सत् का ही यह रस (आनन्दमय आत्मा ब्रह्म है) । 3 ।
अब अमूर्त-वायु तथा अन्तरिक्ष यह अमृत यही सत्य है। 4। उस इस अमूर्त का, इस अमृत का, इस गतिशील का इस उसका रस जो यह इस (सूर्य) मण्डल में पुरुष है, उसका यह रस है । इत्यादि अजिदैवत हुआ।
जब अध्यात्म-यही मूर्त है, जो अन्य प्राण से जो यह अन्तरात्मा आकाश में यह मर्त्य यह स्थित यह सत् है ।5। उस इस अमूर्त का इस मूर्त का इस स्थित का इस सत्का यह रस है, जो चक्षु सत् का यह रस है ।6।
अब मूर्त-प्राण वायु यह अन्तरात्मा में आकाश यह अमृत यह जो इस अमूर्त का।7। इस अमृत का इस आने वाले जाने वाले स्थिर चर उसका यह रस जो यह दक्षिण अक्षि में पुरुष है, उसका ही यह रस है।8। उस इस पुरुष का रूप जैसे महारजन (कौसुम्भ) वस्त्र जैसा शुक्ल कम्बल जैसा इन्द्रगोप (अग्निकीट) जैसे अग्निशिखा जैसे पुण्डरीक (शुक्ल कमल) जैसे सत् विद्युत (शुभ बिजली) उस एक बार विद्योतमान वे बहुत हैं, जो इस प्रकार जानता है, उसकी श्री (शोभा-सम्पत्ति-तथा मोक्षश्री) होती है। 9 |
अब यहाँ से आदेश (आत्मा=ब्रह्म-नाथतत्व) है, इससे परे न इति-2 इससे परे कुछ नहीं है। अब नामधेय सत्य का सत्य प्राण ही सत्य है, उनका यह सत्य है। इत्यादि आगे बहुत है।