अथ ज्ञान गोदड़ी प्रारम्भः
सत नमो आदेश गुरुजी को आदेश ॥ ॐ गुरुजी ||
॥ चौपाई ॥
नाथ कहे दोउ कर जोरी, यह संशय मेटो प्रभु मोरी।
काया गोदड़ी का विस्तारा, तां से हो जीवन निस्तारा।
आदि पुरुष इच्छा उपजाई, इच्छा सखत निरंजन मांही।
इच्छा ब्रह्मा विष्णु महेशा, इच्छा शारद गौरी गणेशा ।
इच्छा से उपजा संसारा-पांच तत्व गुण तीन पसारा ।
अलष पुरुष जब किया विचारा, लक्ष चौरासी धागा डारा ।
पांच तत्व की गोदड़ी बीनी, तीन गुणों से ठाड़ी कीनी।
तां में जीव ब्रह्म है माया, सद्गुरु ऐसा खेल बनाया।
सींवन पाँच पच्चीस सो लागे, काम क्रोध मद मोह त्यागे।
अब काया गोदड़ी का विस्तारा, देखो संतों अगम अपारा।
चन्द्र सूर्य दोउ चंदोआ लागे, गुरु प्रताप से सोवत जागे।
शब्द की सुई सुरति का डोरा, ज्ञान का टोपा निरंजन ओढ़ा।
इस गोदड़ी की कर होशयारी, दाग न लागे देख विचारी ।
सुमति के साबुन सतगुरु धोई, कुमति के मैल को डोरे खोई।
जिन गुदड़ी का किया विचारा, उनको भेंटे सिरजन हारा।
धीरज धूनी ध्यान धर आसन, जतकि कोपीन सत्य सिंहासन।
युक्ति कमण्डल कर गहे लीना, प्रेम फावड़ी सतगुरु चीना।
सेली शील विवेक की माला, दया की टोपी तन धर्मशाला।
मेहर मतंगा मति वै-साखी, मृगछाला मन ही की राखी।
निष्ठा धोती पवन जनेऊ, अजपा जपे सो जाने भेऊ ।
रहे निरन्तर सद्गुरु दाया, साधों की संगत से कुछ पाया।
लय की लकुटी हृदय की झोली, क्षमा खड़ाऊँ पहिर बहोरी।
मुक्ति मेखला सुकृत सुमरनी, प्रेम प्याला पाले मौनी
दास कूबरी कलह निबारी, ममता कुत्ती को ललकारी
यतन जंजीर बान्ध जो राखे, अगम अगोचर खिड़की लाखे।
वीतराग वैराग्य निधाना, तत्व तिलक दीनो निर्वाना ।
गुरु गम चकमक मन सम तूला, ब्रह्म अग्नि प्रगट भई मूला।
संशय शोक सकल भ्रम जारे, पाँच पच्चीसों प्रगट मारे।
दिल के दर्पण दुविधा धोई, सो योगेश्वर पक्का होई ।
सुन्न महल की फेरी देई, अमृत रस की भिक्षा लेई ।
सुख दुःख मेला जग का भावे, त्रिवेणी के घाट नहावे
तन मन खोज भया जब ज्ञाना, तब लख पावे पद निर्वाना ।
अष्ट कमल दल चक्र सूझे, योगी आप आप मैं बूझे ।
इड़ा पिङ्गला के घर जाई, सुषुम्ना नीर रहा ठहराई ।
ॐ सोहं तत्व विचारा, बंक नाल में किया संभारा ।
मनसा मार्ग गगन चढ़ जाई, मानसरोवर बैठ नहाई ।
छूट गई कल्मष मिले अलेखा, इन नैनों से अलष को देखा।
अहंकार अभिमान विदारा, घट में चौका किया उजियारा ।
श्रद्धा चंवर प्रीति की धूपा, निष्ठा नाम गुरु का रूपा ।
अनहद नाद नाम की पूजा, ब्रह्म वैराग्य नहीं दूजा ।
चित्त का चन्दन तुलसी फूला, हित का सम्पुट करले मूला ।
गोदडी पहरी आप अलेषा, जिसने चलाया प्रगट भेषा ।
जो गोदड़ी को पढ़े प्रभाता, जन्म-जन्म का पातक जाता ।
जो गोदड़ी को पढ़े मध्याना, सो नर पावे पद निर्वाना ।
संध्या सिमरण जो नर करे, जरा मरण भव सागर तरे ।
जो गोदड़ी की निन्दा करे, षट दर्शन से वह नर टरे ।
कहें मत्स्येन्द्र सुनो गोरक्षनाथ, ज्ञान गोदड़ी करें प्रकाश ।
॥ इति ज्ञान गोदड़ी समाप्तः ॥